AKHAND JYOTI
स्वाध्याय-सन्दोह
“धर्म की उन्नति से अन्यान्य विषयों में उन्नति अवश्यम्भावी है। यदि रक्त साफ और ताजा रहे तो देह में रोग का कोई कीटाणु (जर्म) प्रवेश नहीं कर सकता। धर्म ही हम लोगों का रक्त है। यदि इस रक्त-प्रवाह में कोई बाधा न पहुँचे और वह शुद्ध तथा ताजा रहे तो सभी बातों में कल्याण होगा। यदि यह रक्त शुद्ध हो तो राजनैतिक, सामाजिक अथवा कोई भी बाहरी दोष हो इतना ही नहीं, हमारे देश की घोर दरिद्रता भी दूर हो जायेंगे। जब तक शरीर अपने में रोग के जीवाणु को प्रवेश नहीं करने देता जब तक देह की जीवनी शक्ति क्षीण होकर रोग के जीवाणु को प्रवेश करने और बढ़ने नहीं देती, तब तक संसार के किसी रोग जीवाणु में शक्ति नहीं कि वह शरीर में रोग उत्पादन कर सके।
सामाजिक जीवन को विषय में भी यही बात है। जिस समय जातीय-शरीर...
सत्य के लिए सर्वस्व त्याग
यदि मेरी मित्रतायें मेरा साथ नहीं देतीं तो न दें। प्रेम मुझे छोड़ देता है तो छोड़ दे। मेरा तो एक ही आग्रह है कि मैं उस सत्य के प्रति सच्ची रह सकूँ, जिसकी सेवा और परिपालन के लिये, मैंने अपनी इच्छाओं का, वैभव विलास से परिपूर्ण पाश्चात्य जीव−पद्धति तक का बहिष्कार कर दिया है। जब तक मेरे शरीर में रक्त की अन्तिम बूँद और अन्तिम श्वास विद्यमान है, मैं एकमेव सत्य की प्राप्ति के हित तिल−तिल जलती रहूँगी। सत्य ही तो मनुष्य जीवन का सार है।
यदि वह सत्य मुझ से रेगिस्तान में चलने को कहेगा तो मैं उसके पीछे−पीछे जाऊँगी, मुझे उसे प्राप्त करने के लिये पर्वतों पर चढ़ना पड़ा, समुद्र की थाह लेनी पड़ी तो भी मैं पीछे नहीं हटूँगी। उसने माँग की मैं प्रेम से वंचित हो जाऊँ तो ...
आत्म-ज्ञान को प्राप्त करो। (भाग 3)
चारों वेद एक स्वर से कहते हैं कि वास्तव में तू ही अविनाशी आत्मा अथवा अमर ब्रह्म है। शान्ति तथा चतुराई से अपने ऊपर के एक-एक आवरण को तथा मन को इन्द्रिय विषयों से हटा ले। एकान्त वास कर। इन्द्रिय विषयों को विष समझ। दूरदर्शिता एवं अनासक्ति द्वारा अपने मन को वश में कर। विवेक, वैराग्य, शत-सम्पत तथा मुमुक्षत्व को सर्वश्रेष्ठ श्रेणी तक बढ़ा। सर्वदा ध्यानस्थ रह। एक क्षण भी व्यर्थ न जाने दे।
आकाश सौम्य और सर्वव्यापक है, इसीलिए ब्रह्म की उपमा आकाश से दी जाती है। प्रारम्भ में तू सौम्य ब्रह्म पर विचार कर सकता है। पहले आकाश पर विचार कर और फिर धीरे-धीर ब्रह्म पर। इस प्रकार गूढ़ चिन्तन में लीन हो जा।
‘ओऽम्’ ब्रह्म का चिह्न है। अर्थात् परमात्मा का चिह्न है। ओऽम् पर विच...
गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 1)
गायत्री मन्त्र के सम्बन्ध में एक शंका अक्सर उठाई जाती है कि उसके कई रूप हैं। कई लोग भिन्न-भिन्न ढंग से उसका उच्चारण करते या लिखते हैं। वस्तुतः शुद्ध रूप क्या है? इस सम्बन्ध में सारे ग्रन्थों का अध्ययन करने पर निष्कर्ष यही निकलता है कि गायत्री में आठ-आठ अक्षर के तीन चरण एवं चौबीस अक्षर हैं। भूः, भुवः, स्वः के तीन बीज मन्त्र- ओजस् तेजस् और वर्चस् को उभारने के लिए अतिरिक्त रूप से जुड़े हुए हैं। प्रत्येक वेद मन्त्र के आरम्भ में एक ॐ लगाया जाता है। जैसे किसी व्यक्ति के नाम से पूर्व सम्मान सूचक ‘श्री’ मिस्टर, पण्डित, महामना आदि सम्बोधन जोड़े जाते हैं, उसी प्रकार ॐकार- तीन व्याहृति और तीन पाद समेत पूरा और सही गायत्री मन्त्र इस प्रकार लिखा जा सकता है- “ॐ भूर्भुवः ...
गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 2)
हर धर्म का एक प्रतीक बीज मन्त्र होता है। इस्लाम में कलमा, ईसाई में वपतिस्मा, जैन धर्म में नमोंकार मन्त्र आदि का प्रचलन है। भारतीय धर्म का आस्था केन्द्र- गायत्री को माना गया है। इसे इसके अर्थ की विशिष्टता- सन्निहित प्रेरणा के कारण विश्व आचार संहिता का प्राण तक माना जा सकता है। वेदों की सार्वभौम शिक्षा लगभग सभी धर्म सम्प्रदायों में भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट हुई है।
गायत्री रूपी बीज के तने, पल्लव ही वेद शास्त्रों के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। इसी कारण उसे ‘वेदमाता’ कहा गया है। वेदमाता अर्थात् सद्ज्ञान की गंगोत्री। इसे देवमाता कहा गया है- अर्थात् जनमानस में देवत्व का अभिवर्धन करने वाली। विश्वमाता भी इसे कहते हैं अर्थात् “वसुधैव कुटुम्बकम्” के तत्व दर्श...
गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 3)
तन्त्र विधान की कुछ विधियाँ गुप्त रखी गयी हैं। ताकि अनधिकारी लोग उसका दुरुपयोग करके हानिकार परिस्थितियाँ उत्पन्न न करने पाएँ। मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, स्तम्भन जैसे आक्रामक अभिचारों के विधि-विधान तथा तन्त्र को इसी दृष्टि से कीलित या गोपनीय रखा गया है। एक तरह से इन्हें सौम्य साधना का स्वरूप न मानकर इन पर ‘बैन’ लगा दिया गया है ताकि लोग भ्रान्तिवश इनमें भटकने न लगें। वैदिक प्रक्रियाओं में ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं। गायत्री वेदमन्त्र है। उसका नामकरण ही “गाने वाले का त्राण करने वाली” के रूप में हुआ है। फिर उसे मुँह से न बोलने, गुप्त रखने, चुप रहने, कान में कहने जैसा कथन सर्वथा उपहासास्पद है। ऐसा वे लोग कहते हैं जो तन्त्र और वेद में अंतर नहीं समझते। गायत्री...
गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 4)
साकार उपासना में गायत्री को माता के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है। माता होते हुए भी उसका स्वरूप नवयौवना के रूप में दो कारणों से रखा गया है। एक तो इसलिए कि देवत्व को कभी वार्धक्य नहीं सताता। सतत् उसका यौवन रूपी उभार ही झलकता रहता है। सभी देवताओं की प्रतिमाओं में उन्हें युवा सुदर्शन रूप में ही दर्शाया जाता है। यही बात देवियों का चित्रण करते समय भी ध्यान में रखी जाती है और उन्हें किशोर निरूपित किया जाता है। दूसरा कारण यह है कि युवती के प्रति भी विकार भाव उत्पन्न न होने देने- मातृत्व की परिकल्पना परिपक्व करते चलने के लिये उठती आयु को इस अभ्यास के लिये सर्वोपयुक्त माना गया है। कमलासन पर विराजमान होने का अर्थ है- कोमल, सुगन्धित, उत्फुल्ल कमल पुष्प जैसे विशाल में उसका निवास होने की संगति ...
गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 5)
बहुपत्नी प्रथा चलते हुए यह आवश्यक हो गया कि इसकी प्रतिक्रिया से नारी को भी तनकर खड़े न होने देने के लिए धार्मिक मोर्चे पर मनोवैज्ञानिक दीवार खड़ी की जाय और उन्हें अपनी विवशता को भगवद् प्रदत्त या धर्मानुकूल मानने के लिए बाधित किया जाय। सती प्रथा- पर्दा प्रथा- जैसे प्रचलन नारी को अपनी विवशता- नियति प्रदत्त मानने के लिये स्वीकार करने हेतु कुचक्र भर थे। इसी सिलसिले में धार्मिक अधिकारों से उन शोषित वर्गों को वंचित करने की बात कही जाने लगी। शस्त्रों में भी जहाँ-तहाँ ये अनैतिक प्रतिपादन ठूँस दिये गए और भारतीय संस्कृति की मूलाधार को उलट देने वाले प्रतिपादन चल पड़े। धार्मिक कृत्यों से वंचित रखने की बात भी उसी सामन्ती अन्धकार युग का प्रचलन- आधुनिक संस्करण भर है। वस्तुतः नर-नारी के बीच शास्त्र परम्प...
गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 6)
किसी भी कार्य को उपयुक्त विधि-विधान के साथ किया जाय, तो यह उत्तम ही है। इसमें शोभा भी है, सफलता की सम्भावनाएँ भी हैं। चूक से यदि अपेक्षित लाभ नहीं मिलता तो किसी प्रकार के विपरीत प्रतिफल की या उल्टा- अशुभ होने की कोई आशंका नहीं है। पूजा-उपासना कृत्यों पर, विशेषकर गायत्री उपासना पर भी यह बात लागू होती है। भगवान सदैव सत्कर्मों का सत्परिणाम देने वाली सन्तुलित विधि-व्यवस्था को ही कहा जाता रहा है। दुष्परिणाम तो दुष्कृतों के निकलते हैं। यदि उपासना में भी चिन्तन और कृत्य को भ्रष्ट और बाह्योपचार को प्रधानता दी जाती रही तो प्रतिफल उस चिन्तन की दुष्टता के ही मिलेंगे। उन्हें बाह्योपचारों से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। इन्हीं उपचारों में मुँह से जप लेना, जल्दी-जल्दी या उँघते-उँघते माला घुमा लेना, किसी तरह ...
गायत्री उपासना सम्बन्धी शंकाएँ एवं उनका समाधान (भाग 7)
इस मन्त्र समुच्चय के साथ जुड़े हुए अक्षरों में से प्रत्येक में अति महत्वपूर्ण तथ्यों का समावेश है। बीज में समूचे वृक्ष की सत्ता एवं सम्भावना सन्निहित रहती है। शुक्राणु में पैतृक विशेषताओं समेत एक समूचे मनुष्य की सत्ता का अस्तित्व समाया होता है। माइक्रो फिल्म के एक छोटे से फीते में विशालकाय ग्रन्थ की झाँकी देखी जा सकती है। ठीक इसी प्रकार गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों में ज्ञान और विज्ञान की दोनों धाराओं का समान रूप से समावेश है। अध्यात्म दर्शन की शाखा- प्रशाखाओं में बँटा समूचा विज्ञान इन अक्षरों में पढ़ा जा सकता है। यदि इस समग्र तत्वदर्शन को ध्यान में रखते हुए उपासना की जाती है तो चिन्तन और कर्म में स्वभावतः श्रेष्ठता का समावेश होना ही चाहिए। यदि मन्त्र जाप के पूर्व ही उसे ‘इफ&rsqu...